- इंडियन काउंसिल फॉर हिस्टोरिकल रिसर्च, नई दिल्ली के डिप्टी डायरेक्टर डॉ. सौरभ कुमार मिश्र बता रहे हैं पर्यावरण और जनजातीय समुदायों का अंतरसंबंध
प्रकृति के साथ सदियों से नाता निभा रहे खपरी पानी के बैगा
¶¶ डिंडौरी जिले के खपरी पानी गांव के बैगाओं का प्रकृति से अनोखा संबंध है। ये प्रकृति को मां मानते हैं इसलिए धरती पर न हल चलाते हैं, न ही फसलों को नष्ट करने के लिए आग लगाते हैं... ¶¶
डीडीएन रिपोर्टर | डिंडौरी
विश्व पर्यावरण दिवस (05 जून) पर प्रस्तुत इस आलेख में आप प्रकृति और जनताजीय समुदायों के अंतरसंबंध के बारे में पढ़ेंगे। डिंडौरी जिले में भी ऐसे कई जनजातीय समूह निवास करते हैं, जो प्रकृति को मां कहते ही नहीं बल्कि दिल से मानते भी हैं। इसका जीता-जागता उदाहरण हैं जिले के खपरी पानी गांव के बैगा, जिनका पर्यावरण से अनोखा संबंध है। ये प्रकृति को मां मानते हैं, इसलिए धरती पर न हल चलाते हैं, न ही फसलों को नष्ट करने के लिए आग लगाते हैं। मनुष्य के भीतर तृष्णा का भाव, असीमित भोग वांछनाएं और श्रेष्ठता का दंभ बना रहता है। उसके मन में यह भावना विद्यमान है कि वसुधा के संपूर्ण वैभव का भोग सिर्फ उसे ही करना है। शायद यही कारण है कि वह प्राकृतिक संसाधनों का शोषण करता चला आ रहा है। जबकि वैदिक संस्कृति पूरी दुनिया को अपना परिवार मानती है, इसीलिए चिरकला से संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् जैसे दिव्य भावों की उद्घोषणा करती आ रही है। लेकिन अति संग्रह भंडारण व अतिभोग की प्रवृत्ति के कारण मनुष्य ने पर्यावरण का अंधाधुंध दोहन किया है। जबकि प्रकृति मां की तरह सभी प्राणियों के हितों के लिए तत्पर है। मनुष्य ने अपने व प्रकृति के बीच जो विकृतियां और विसंगतियां पैदा की हैं, परिणामस्वरूप सभी को प्रकृति का कोप भी देखना पड़ रहा है। कोरोनावायरस, निसर्ग जैसी आपदाएं आज हम सभी देख-भुगत रहे हैं।
प्रकृति से लेते हैं अन्न और औषिधि, बदले में पूरा जीवन दे देते हैं
आज के दौर में मनुष्य को भी समझ में आने लगा है कि उसने पर्यावरण का आवश्यकता से अधिक शोषण किया है। लेकिन इस दोहन व शोषण के भाव में धरती पर एक समूह ऐसा भी है जो आज भी प्रकृति-धरती को माता मानकर आवश्यक संसाधनों के साथ अपना जीवन-यापन कर रहे हैं। मैंने इस भाव को स्वयं डिंडौरी जिले के जनजातीय क्षेत्रों समेत अन्य स्थानों में अध्ययन के दौरान अनुभव किया है। इसी आधार पर कहना चाहूंगा कि आदिवासी प्रकृति प्रेमी व पर्यावरण के सच्चे उपासक होते हैं। प्रकृति ही उनका परिवेश, आलम्बन व उद्दीपन भी है। आदिवासी लोग प्रकृति से अन्न व औषधि ग्रहण करते ही हैं, साथ में शृंगार के लिए उपकरण और इसी के साथ अपने त्यौहार भी मनाते हैं। बदले में प्रकृति को पूरा जीवन समर्पित कर देते हैं।
धरती मां पर हल नहीं चलाते डिंडौरी के बैगा ताकि मां को कष्ट न हो
वनवासी समुदाय धरती को मां के रूप में देखते हैं। उनका कहना है कि जिस प्रकार मां अपने पुत्रों का किसी भी परिस्थिति में पेट भरने और संरक्षण करती है, उसी प्रकार धरती भी हमारे लिए अन्न उगाती है, जिससे हम अपना पेट भरते हैं। डिंडौरी जिले के निकटवर्ती खपरी पानी गांव के कुछ बैगा जनजाति समूह धरती पर न हल चलाते हैं, न ही फसलों को नष्ट करने के लिए आग लगाते हैं। उनका मानना है कि धरती हमारी माता है और मां पर हल चलाने से उन्हें कष्ट होगा। वो कहते हैं कि जंगलों में जीवन की आवश्यकता के लिए सभी आवश्यक तत्व विद्यमान हैं इसलिए जंगल व जमीन का संरक्षण हमें करना चाहिए क्योंकि ये हमारा संरक्षण करते हैं।
गाड़ासरई के डॉ. विजय चौरसिया ने लिखी ‘प्रकृति पुत्र बैगा’ पुस्तक
¶¶ डिंडौरी जिले के गाड़ासरई के लेखक डॉ. विजय चौरसिया ने जनजातियों पर केंद्रित पुस्तक ‘प्रकृति पुत्र बैगा’ लिखी है। उनका मानना है कि बैगा जनजाति को सच्चे अर्थों में प्रकृति का पुत्र या जंगल का राजा कहा जाना चाहिए क्योंकि वे हमेशा से प्रकृति के उपासक और संरक्षक रहे हैं। उनका मानना है कि बैगाओं की उत्पत्ति की कहानी ही प्रकृति के काफी करीब है। प्रख्यात समाजशास्त्री व मानवशास्त्री डॉ. रसेल व हीरालाल का मानना है कि बैगाओं की उत्पत्ति का तो कोई प्रमाण तो नहीं लेकिन प्रारंभ में भगवान ने नागा व नागी बैगा/बैगाइन की उत्पत्ति की, जो जंगल में प्रकृति के बीच रहने लगे। कुछ समय बाद उनसे दो संतानें पैदा हुईं, जिसमें एक बैगा था। वह प्रकृति के बीच उत्पन्न होने के कारण प्रकृति के प्रति उत्तरदायी हुआ। इसी प्रकार बैगाओं की उत्पत्ति के संबंध में कुछ अन्य मिथक भी प्रचलित हैं।
बीमारियों के निवारण के लिए सिर्फ वनौषधियों पर भरोसा
जनजातीय समुदाय के जीवनचर्या से संबंधित अधिकतर वस्तुएं वनों से प्राप्त होती हैं। साथ ही प्रचुर मात्रा में जीवनदायी औषधियाँ भी प्राप्त होती हैं। जनजातीय समूह स्वयं ही औषधि चुनकर अपना उपचार करते हैं। जैसे सफेदमुसली, गिलोय, सहजीरा, सौंफ, हल्दी, हड़जुड़ी, कुरकुट, पीपल, पाकड़, पलारा, पलारा, गुल्लर, आक, जरीया आदि ऐसे पौधे व वृक्ष हैं, जिससे जनजातीय समाज छोटी से लेकर बड़ी बीमारियों का इलाज करते हैं। वन आदिवासियों लिए देवतुल्य हैं और इनके संरक्षण के लिए जनजातियां हर संभव प्रयास करती हैं।
खेत व पशुधन को बचाने करते हैं बाघेश्वर बेवर देव की उपासना
बैगाओं की बेवर खेती घने जंगलों में होती है, जहां बाघ का खतरा हमेशा बना रहता है। इसलिए वे बाघ को देवता मानकर उसकी पूजा करते हैं। उनका मानना है कि इससे बाघ देवता खुश होते हैं और उनके खजानों, पशुधनों और खेती को कोई नुकसान नहीं पहुंचाते। इसी तरह बैगाजन गांव की सीमाओं पर वन देवी की स्थापना करते हैं। एक स्थान पर पत्थरों का ढेर लगाकर बंजारिन माई को स्थापित किया जाता है। इनका कोई रूप रंग नहीं होता, लेकिन मां के समान आदर और सत्कार देते हैं। जब भी कोई बैगा गांव से बाहर जाता है या फिर वापस आता है तो बंजारिन माई के सामने एक पत्थर रखता है, जो उस व्यक्ति की रक्षा करती है। शादी, जन्म संबंधी संस्कारों को लेकर बैगा जनजाति में प्रकृति देवता की उपासना का प्रचलन है।
मालवन वृक्ष के रस से गोदने का दर्द कम करता है बैगा समुदाय
डिंडौरी जिले समेत दुनियाभर की जनजातियों में गोदना की प्राचीन परंपरा प्रचलित है। गोदना जनजाति समुदाय के जीवन की मुख्य क्रिया है। उनका मानना है कि मृत्यु के बाद भी यह चिह्न उनके साथ रहता है। वहीं, कुछ की मान्यता है कि यह चिह्न माँ बेटी को प्राप्त होता है। गोदना बबूल या अन्य पारंपरिक उपकरण के गोदा जाता है। इससे उपजने वाले दर्द को कम करने के लिए इस पर मालवन वृक्ष का रस लगाया जाता है। इसी प्रकार रमतिला के रस, भिलवां समेत अन्य औषधियों से शरीर पर पड़ने वाले नाकारत्मक प्रभावों को कम किया जाता है।
¶¶ जनजातीय समुदायों का जीवन पर्यावरण से इतर सोचा ही नहीं जा सकता क्योंकि जीवन जीने की सभी संभावनाएं और आवश्यकताएं उन्हें प्रकृति से ही प्राप्त होती हैं। सही मायने में सुदूर इलाकों में निवासरत वनवासी समुदायों के इर्द-गिर्द पाए जाने वाले वन भी इन्हीं के कारण संरक्षित हैं।
(ICHR, नई दिल्ली के डिप्टी डायरेक्टर डॉ. सौरभ कुमार मिश्र के अध्ययन और शोध पर आधारित आलेख।)